ऋग्वेद 1.16.4

उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः।
सुते हि त्वा हवामहे॥4॥

पदपाठ — देवनागरी
उप॑। नः॒। सु॒तम्। आ। ग॒हि॒। हरि॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। के॒शिऽभिः॑। सु॒ते। हि। त्वा॒। हवा॑महे॥ 1.16.4

PADAPAATH — ROMAN
upa | naḥ | sutam | ā | gahi | hari-bhiḥ | indra | keśi-bhiḥ | sute | hi | tvā | havāmahe

देवता        इन्द्र:;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(हि) जिस कारण यह (इन्द्र) वायु (केशिभिः) जिनके बहुत से केश अर्थात् किरण विद्यमान हैं, वे (हरिभिः) पदार्थों के हरने वा स्वीकार करनेवाले अग्नि विद्युत् और सूर्य्य के साथ (नः) हमारे (सुतम्) उत्पन्न किये हुएहोम वा शिल्प आदि व्यवहार के (उपागहि) निकट प्राप्त होता है, इससे (त्वा) उसको (सुते) उत्पन्न किये हुए होम वा शिल्प आदि व्यवहारों में हम लोग (हवामहे) ग्रहण करते हैं॥4॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो पदार्थ हम लोगों को शिल्प आदि व्यवहारों में उपकारयुक्त करने चाहियें। वे अग्नि विद्युत् और सूर्य्य वायु ही के निमित्त से प्रकाशित होते तथा जाते-आते हैं॥4॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
4. इन्द्रदेव! केशर-युक्त अश्वों के साथ तुम हमारे संस्कृत सोमरस के निकट आओ। सोमरस तैयार होने पर हम तुम्हें बुलाते हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
4. Come hither, with thy long-maned Steeds, O Indra, to- the draught we pour We call thee wher, the juice is shed. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Come here, with your long-maned steeds, Indra, to- the draught we pour We call you where the juice is shed. [4]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
4. Come, Indra, to our libation with your long-maned steeds; the libation being poured out, we invoke you.

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