ऋग्वेदः 1.12.5
घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह। अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥5॥
पदपाठ — देवनागरी
घृत॑ऽआहवन। दी॒दि॒ऽवः॒। प्रति॑। स्म॒। रिष॑तः। द॒ह॒। अग्ने॑। त्वम्। र॒क्ष॒स्विनः॑॥ 1.12.5
PADAPAATH — ROMAN
ghṛta-āhavana | dīdi-vaḥ | prati | sma | riṣataḥ | daha | agne | tvam | rakṣasvinaḥ
देवता — अग्निः ; छन्द — निचृद्गायत्री ; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(घृताहवन) जिस में घी तथा जल क्रिया सिद्ध होने के लिये छोडा जाता है और जो अपने (दीदिवः) शुभ गुणों से पदार्थों को प्रकाश करने वाला है, (त्वम्) वह (अग्ने) अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में राक्षस अर्थात् दुष्टस्वभाववाले और निन्दा के भरे हुए मनुष्य विद्यमान हैं, तथा जो कि (रिषतः) हिंसा के हेतु दोष और शत्रु हैं उनका (प्रति दह स्म) अनेक प्रकार से विनाश करता है, हम लोगों को चाहिये कि उस अग्नि को कार्यों में नित्य संयुक्त करें॥5॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो अग्नि इस प्रकार सुगन्ध्यादि गुणवाले पदार्थों से संयुक्त होकर सब दुर्गन्ध आदि दोषों को निवारण करके सबके लिये सुखदायक होता है, वह अच्छे प्रकार काम में लाना चाहिये। ईश्वर का यह वचन सब मनुष्यों को मानना उचित है॥5॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
5. हे अग्नि! तुम घी से बुलाये गये और प्रकाशमान हो। हमारे द्रोही लोग राक्षसों से मिल गये हैं। उन्हें तुम जला दो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
5. O Agni, radiant One, to whom the holy oil is poured, bum up Our enemies
whom fiends protect.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Agni, radiant one, to whom the holy oil is poured, bum up Our enemies whom
fiends protect. [5]
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
5. Resplendent Agni, invoked by oblations of clarified butter,
consume our adversaries, who are defended by evil spirits.
Raksasvinah, having or being attended
by Raksasas. (ZbpuYs˜¡pSo)