ऋग्वेदः 1.10.12
परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः॥12॥
पदपाठ — देवनागरी
परि॑। त्वा॒। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। इ॒माः। भ॒व॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धऽआ॑युम्। अनु॑। वृद्ध॑यः। जुष्टाः॑। भ॒व॒न्तु॒। जुष्ट॑यः॥ 1.10.12
PADAPAATH — ROMAN
pari | tvā | girvaṇaḥ | giraḥ | imāḥ | bhavantu | viśvataḥ | vṛddha-āyum |
anu | vṛddhayaḥ | juṣṭāḥ | bhavantu | juṣṭayaḥ
देवता
— इन्द्र:; छन्द — अनुष्टुप् ; स्वर — गान्धारः ;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (गिर्वणः) वेदों तथा विद्वानों की वाणियों से स्तुति को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर! (विश्वतः) इस संसार में (इमाः) जो वेदोक्त वा विद्वान् पुरुषों की कही हुई, (गिरः) स्तुति है वे, (परि) सब प्रकार से सबकी स्तुतियों से सेवन करने योग्य आप हैं उनको, (भवन्तु) प्रकाश करनेहारी हों और इसीप्रकार, (वृद्धयः) वृद्धि को प्राप्त होने योग्य, (जुष्टाः) प्रीति की देनेवाली स्तुतियां, (जुष्टयः) जिनसे सेवन करते हैं वे, (वृद्धायुं) जो कि निरन्तर सब कार्य्यों में अपनी उन्नति को आप ही बढ़ानेवाले आपका, (अनुभवन्तु) अनुभव करें॥12॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे भगवन् परमेश्वर ! जो-2 अत्युत्तम प्रशंसा है सो-2 आपकी ही है, तथा जो-2 सुख और आनन्द की वृद्धि होती है सो-2 आप ही को सेवन करके विशेष वृद्धि को प्राप्त होती है। इस कारण जो मनुष्य ईश्वर तथा सृष्टि के गुणों का अनुभव करते हैं, वे ही प्रसन्न और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर संसार में पूज्य होते हैं॥12॥
इस मन्त्र में सायणाचार्य ने (परिभवन्तु) इस पद का अर्थ यह किया है कि- सब‘जगह से प्राप्त हों’ यह व्याकरण आदि शास्त्रों से अशुद्ध है, क्योंकि (परौभुवोऽवज्ञाने) व्याकरण के इस सूत्र से परिपूर्वक ‘भू’ धातु का अर्थ तिरस्कार अर्थात् अपमान करना होता है। आर्य्यावर्त्तवासी सायणाचार्य आदि तथा यूरोपखण्ड देशवासी साहबों ने इस दशवें सूक्त के अर्थ का अनर्थ किया है।
जो लोग क्रम से विद्या आदि शुभगुणों को ग्रहण और ईश्वर की प्रार्थना करके अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर परमेश्वर की प्रशंसा और धन्यवाद करते हैं,वे ही अविद्या आदि दुष्ट गुणों की निवृत्ति से शत्रुओं को जीतकर तथा अधिक अवस्थावाले और विद्वान होकर सब मनुष्यों को सुख उत्पन्न करके सदा आनन्द में रहते हैं इस अर्थ से इस दशम सूक्त की संगति नवम सूक्त के साथ जाननी चाहिये॥
यह दशम सूक्त और बीसवां वर्ग पूरा हुआ॥10।20॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
12. हे स्तवनीय इन्द्र! चारों ओर से यह स्तुति तुम्हारे पास पहुँचे। तुम चिरायु हो; तुम्हारा अनुगमन करके यह स्तुति बढ़ती पावे। तुम्हारा संतोष-साधन करके यह स्तुति हमारे लिए प्रीतिकर हो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
12. Lover of song, may these our songs on every side encompass thee: Strengthening thee of lengthened life, may they be dear delights to thee.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Lover of song, may these our songs on every side encompass you:
Strengthening you of lengthened life, may they be dear delights to you.
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
12. May these our praises be on all occasions around you, deserver of
praise; may they augment the power of you, who are long-lived, and being
agreeable to you, may they yield delight (to us).