ऋग्वेदः 1.10.5

उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुरुनिष्षिधे। शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत्सख्येषु च॥5॥

पदपाठ — देवनागरी
उ॒क्थम्। इन्द्रा॑य। शंस्य॑म्। वर्ध॑नम्। पु॒रु॒निः॒ऽसिधे॑। श॒क्रः। यथा॑। सु॒तेषु॑। नः॒। र॒रण॑त्। स॒ख्येषु॑। च॒॥ 1.10.5

PADAPAATH — ROMAN
uktham | indrāya | śaṃsyam | vardhanam | puruniḥ-sidhe | śakraḥ | yathā | suteṣu | naḥ | raraṇat | sakhyeṣu | ca

देवता        इन्द्र:;       छन्द        विराडनुष्टुप् ;       स्वर        गान्धारः ;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(यथा) जैसे कोई मनुष्य अपने, (सुतेषु) सन्तानों और, (सख्येषु) मित्रों को करने को प्रवृत्त होके सुखी होता है वैसे ही, (शक्रः) सर्वशक्तिमान जगदीश्वर, (पुरुनिष्षिधे) पुष्कल शास्त्रों का पढ़ने पढ़ाने और धर्मयुक्त कामों में विचरनेवाले, (इन्द्राय) सबके मित्र और ऐश्वर्य्य की इच्छा करनेवाले धार्मिक जीव के लिये, (वर्धनं) विद्या आदि गुणों के बढ़ानेवाले, (शंस्यं) प्रशंसा, (च) और, (उक्थं) उपदेश करने योग्य वेदोक्त स्तोत्रों के अर्थों का, (रारणत्) अच्छी प्रकार प्रकाश करके सुखी बना रहे॥5॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में उपमालंकार है। इस संसार में जो-2 शोभायुक्त रचना प्रशंसा और धन्यवाद हैं, वे सब परमेश्वर ही की अनन्त शक्ति का प्रकाश करते हैं, क्योंकि जैसे सिद्ध किये हुये पदार्थों में प्रशंसायुक्त रचना के अनेक गुण उन पदार्थों के रचनेवाले की ही प्रशंसा के हेतु हैं, वैसे ही परमेश्वर की प्रशंसा जनाने वा प्रार्थना के लिये हैं।इस कारण जो-2 पदार्थ हम ईश्वर से प्रार्थना के साथ चाहते हैं, सो-2 हमारे अत्यन्त पुरुषार्थ के द्वारा ही प्राप्त होने योग्य हैं, केवल प्रार्थनामात्र से नहीं॥5॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
5. अनन्त-शत्रु-निवारक इन्द्र के उद्देश्य से ऋग्वेद के गीत परिवर्द्धमान हैं, जिनसे शक्तिशाली इन्द्र हम लोगों के पुत्रों और बन्धुओं के बीच महानाद करें।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
5. To Indra must a laud be said, to strengthen him who freely gives, That Sakra may take pleasure in our friendship and drink-offerings. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
To Indra must a laud be said, to strengthen him who freely gives, That Sakra may take pleasure in our friendship and drink-offerings. [5]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
5. The hymn, the cause of increase, is to be repeated to Indra, the repeller of many foes, that Sakra may speak (with kindness) to our sons and to our friends.
Sakra is a common synonym of Indra, but is used, if not in this, clearly in the next stanza, as an epithet implying’ the powerful’, from sak, to be able.

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