ऋग्वेदः 1.3.9
विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः । मेधं जुषन्त वह्नयः ॥9॥
पदपाठ — देवनागरी
विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒स्रिधः॑ । एहि॑ऽमायासः । अ॒द्रुहः॑ । मेध॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । वह्न॑यः ॥ 1.3.9
PADAPAATH — ROMAN
viśve | devāsaḥ | asridhaḥ | ehi-māyāsaḥ | adruhaḥ | medham | juṣanta | vahnayaḥ
देवता
— विश्वेदेवा:; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(एहिमायासः) हे क्रियामें बुद्धि रखनेवाले (अस्रिधः) दृढ ज्ञान से परिपूर्ण (अद्रुहः) द्रोहरहित (वह्नयः) संसार को सुख पहुंचाने वाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो ! तुम (मेधम्) ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक यथावत् सेवन किया करो ॥9॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
ईश्वर आज्ञा देता है कि- हे विद्वन् लोगो ! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो ॥9॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
9. विश्वेदेवगण अक्षय, प्रत्युत्पनमति, निर्वैर और धन-वाहक हैं। वे इस यज्ञ में पधारें।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
9. The Visvedevas, changing shape like serpents, fearless, void of guile, Bearers, accept the sacred draught.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
The Visvedevas, changing shape like serpents, fearless, void of guile, Bearers, accept the sacred draught. [9]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
9. May the universal Gods, who are exempt from decay, omniscient, devoid of malice, and bearers of (riches), accept the sacrifice.
Omniscient- The original word is uncommon, ehimayasah. The Scholiast explains it by those who have obtained knowledge universally (sarvatah vyaptaprajnah); or it may refer, Sayana states, to a legend in which the Visvedevas addressed the Agni, Saucika, who had gone into the water, saying, ehi come, md yasih, do not go away; from whence they derived the appellation ehimayasah. It is more than probable that the origin and import of the term were forgotten when Sayana wrote.