ऋग्वेदः 1.3.1
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती । पुरुभुजा चनस्यतम् ॥1॥
पदपाठ — देवनागरी
अश्वि॑ना । यज्व॑रीः । इषः॑ । द्रव॑त्पाणी॒ इति॒ द्रव॑त्ऽपाणी । शुभः॑ । प॒ती॒ इति॑ । पुरु॑ऽभुजा । च॒न॒स्यत॑म् ॥ 1.3.1
PADAPAATH — ROMAN
aśvinā | yajvarīḥ | iṣaḥ | dravatpāṇī itidravat-pāṇī | śubhaḥ | patī iti |
puru-bhujā | canasyatam
देवता
— अश्विनौ ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे विद्याके चाहने वाले मनुष्यो ! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थ विद्या के व्यवहारसिद्धि करनेमें उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभगुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खानेपीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतू (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध कराने वाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओंको (चनस्यतम्)) अन्नके समान अतिप्रीतिसे सेवन किया करो। अब अश्विनी शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं॥ हम लोग अच्छी-अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों को सिद्धि होती है तथा (देवी) जो कि शिल्पविद्यामें अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और सूर्य्यके प्रकाश से अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियोंसे मनुष्यों को पहुँचाने वाले होते हैं (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। मनुष्य लोग जहाँ-जहाँ साधे हुये अग्नि और जलके सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं वहाँ सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है (अथा0) इस निरुक्त में जो कि द्युस्थान शब्द है उससे प्रकाश में रहनेवाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य-अग्नि-जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं उन पदार्थों में दो-दो के योग को अश्वि कहते हैं वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं उनमें से यहाँ अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रससे तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने केलिये शिल्पविद्या व्यवहारों अर्थात् कारीकरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोडे जाते हैं तब सब कलाओंके साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले तथा जब उक्त कलाओं से ताडित अर्थात् चलाये जाते हैं तब अपने चलनेसे उन सवारियों को चलानेवाले होते हैं उन अश्वियों को तुर्फरी भी कहते हैं क्योंकि तुर्फरी शब्द के अर्थ से वे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जलसे परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं उनके जाने-आने के लिये होते हैं ॥1॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें ॥1॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
1. हे क्षिप्रबाहु, सुकर्मपालक और विस्तीर्ण-भुज-संयुक्त अश्विद्वय! तुम लोग यज्ञीय अन्न को ग्रहण करो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
1 YE Asvins, rich in treasure, Lords of splendour, having nimble hands, Accept the sacrificial food.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
YOU Asvins, rich in treasure, lords of splendour, having nimble hands,
Accept the sacrificial food. [1]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
1. Asvins, cherishers of pious acts, long-armed, accept with outstretched hands the sacrificial viands.
The Asvins are the two sons of the Sun, begotten during his metamorphosis as a horse (Asva), endowed with perpetual youth and beauty, and physicians of the gods; they are the heroes of many legends in the Puranas, but of still more in this Veda; the enumeration of their wonderful actions is the especial subject of Hymns 116 and 117.
Long-Armed– Purubhuja1 , which may be also rendered, great eaters.