ऋग्वेदः 1.1.5
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत् ॥5॥
पदपाठ — देवनागरी
अ॒ग्निः । होता॑ । क॒विऽक्र॑तुः । स॒त्यः । चि॒त्रश्र॑वःऽतमः । दे॒वः । दे॒वेभिः॑ । आ । ग॒म॒त् ॥ 1.1.5
PADAPAATH — ROMAN
agniḥ | hotā | kavi-kratuḥ | satyaḥ | citraśravaḥ-tamaḥ | devaḥ | devebhiḥ
| ā | gamat
देवता -—; अग्निः ; छन्द —; गायत्री; स्वर — ; षड्जः; ऋषि — ; मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो (सत्य) अविनाशी (देवः) आपसे आप प्रकाशमान (कविक्रतुः) सर्वज्ञ है। जिसने परमाणु आदि पदार्थ और उनके उत्तम-उत्तम गुण रच के दिखलाये हैं। (कविक्रतुः) जो सब विद्यायुक्त वेद का उपदेश करता है और जिससे परमाणु आदि पदार्थों करके सृष्टि के उत्तम पदार्थों का दर्शन होता है। वही कवि अर्थात् सर्वज्ञ ईश्वर है तथा भौतिक अग्नि भी स्थूल और सूक्ष्म पदार्थो से कलायुक्त होकर देश-देशान्तर में गमन करनेवाला दिखलाया है। (चित्रश्रवस्तमः) जिसका अति आश्चर्यरूपी श्रवण है, वह परमेश्वर (देवेभिः) विद्वानों के साथ समागम करने से (आगमत्) प्राप्त होता है तथा जो (सत्यः) श्रेष्ठ विद्वानो का हित अर्थात् उनके लिए सुखरूप (देवः) उत्तम गुणों का प्रकाश करनेवाला (कविक्रतुः) सब जगत् को जानने और रचनेहारा परमात्मा ॥ और जो भौतिक अग्नि सब पृथिवी आदि पदार्थों के साथ व्यापक और शिल्पविद्या का मुख्य हेतु (चित्रश्रवस्तमः) जिसको अद्भुत अर्थात् अति आश्चर्य्यरूप सुनते हैं। वह दिव्य गुणों के साथ (आगमत्) जाना जाता है ॥5॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मंत्र में श्लेषालंकार है। सबका आधार, सर्वज्ञ, सबका रचनेवाला, विनाशरहित,अनन्त शक्तिमान् और सबका प्रकाशक आदि गुण हेतुओं के पाये जाने से अग्निशब्द करके परमेश्वर, और आकर्षणादि गुणों से मुर्तिमान् पदार्थों का धारण करनेहारादि गुणों के होने से भौतिक अग्नि का भी ग्रहण होता है। सिवाय इसके मनुष्यों को यह भी जानना उचित है कि विद्वानों के समागम और संसारी पदार्थों को उनके गुण सहित विचारने से परमदयालु परमेश्वर अनंत सुखदाता और भौतिक अग्नि शिल्प विद्या का सिद्ध करनेवाला होता है।
सायणाचार्य्य ने (गमत्) इस प्रयोग को लोट् लकार का माना है, सो यह उनका व्याख्यान अशुद्ध है। क्योंकि इस प्रयोग में (छंदसि लुङ्0) यह सामान्य काल बतानेवाला सूत्र वर्तमान है ॥5॥
यह पहला वर्ग समाप्त हुआ ॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
5. हे अग्नि! तुम होता, अशेषबुद्धिसम्पन्न या सिद्धकर्मा, सत्यपरायण, अतिशय कीर्त्ति से युक्त और दीप्तिवान हो। देवों के साथ, इस यज्ञ में आओ।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
5 May Agni, sapient-minded Priest, truthful, most gloriously great, The
God, come hither with the Gods.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
May god Agni, sapient-minded priest, truthful, most gloriously great, Come
here with the gods. [5]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
“5. May Agni, the presenter of oblations, the attainer of knowledge, he who is true, renowned, and divine, come hither with the gods.
The Attainer of Knowledge- Kavi-kratu2 is here explained to signify one by whom either knowledge or religious acts (kratu) have been acquired or performed (kranta): the compound is commonly used as synonym of Agni.”