ऋग्वेद 1.25.4

परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥4॥

पदपाठ — देवनागरी
परा॑। हि। मे॒। विऽम॑न्यवः। पत॑न्ति। वस्यः॑ऽइष्टये। वयः॑। न। व॒स॒तीः। उप॑॥ 1.25.4

PADAPAATH — ROMAN
parā | hi | me | vi-manyavaḥ | patanti | vasyaḥ-iṣṭaye | vayaḥ | na | vasatīḥ | upa

देवता —        वरुणः;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         शुनःशेप आजीगर्तिः 

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे जगदीश्वर ! जैसे (वयः) पक्षी (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ दूरदेश को (उपपतन्ति) उड़ जाते हैं (न) वैसे (मे) मेरे निवास स्थान से (वस्यइष्टये) अत्यन्त धन होने के लिये (विमन्यवः) अनेक प्रकार के क्रोध करनेवाले दुष्टजन (परापतन्ति) (हि) दूर ही चले जावें॥4॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं वैसे हीक्रोधी जीव मुझसे दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूँ जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥4॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
4. जिस तरह चिड़ियाँ अपने घोसलों की ओर दौड़ती हैं, उसी तरह हमारी क्रोध-रहित चिन्तायें भी धन-प्राप्ति की ओर दौड़ रही हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
4. They flee from me dispirited, bent only on obtaining wealths As to their nests the birds of air. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
They flee from me dispirited, bent only on obtaining wealths As to their nests the birds of air. [4]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
4. My tranquil (meditations) revert to the desire of life, as birds hover around their nests. Vasya istaye.
The first, according to the Scholiast, is equivalent to vasumatah, precious; that is,jivasya, life, understood.

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