ऋग्वेद 1.23.4

मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये। जज्ञाना पूतदक्षसा॥4॥

पदपाठ — देवनागरी
मि॒त्रम्। व॒यम्। ह॒वा॒म॒हे॒। वरु॑णम्। सोम॑ऽपीतये। ज॒ज्ञा॒ना। पू॒तऽद॑क्षसा॥ 1.23.4

PADAPAATH — ROMAN
mitram | vayam | havāmahe | varuṇam | soma-pītaye | jajñānā | pūta-dakṣasā

देवता —        मित्रावरुणौ ;       छन्द        गायत्री;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(वयम्) हम पुरुषार्थी लोग जो (सोमपीतये) जिसमें सोम अर्थात् अपने अनुकूल सुखों के देनेवाले रसयुक्त पदार्थों का पान होता है उस व्यवहार के लिये (पूतदक्षसा) पवित्र बल करनेवाले (जज्ञाना) विज्ञान के हेतु (मित्रम्) जीवन के निमित्त बाहर वा भीतर रहनेवाले प्राण और (वरुणम्) जो श्वासरूप ऊपर को आता है उस बल करनेवाले उदान वायु को (हवामहे) ग्रहण करते हैं उनको तुम लोगों को भी क्यों न जानना चाहिये॥4॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को प्राण और उदान वायु के बिना सुखों का भोग और बल का सम्भव कभी भी नहीं हो सकता, इस हेतु से इनके सेवन की विद्या को ठीक-ठीक जानना चाहिये॥4॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
4. मित्र और वरुण-दोनों शुद्ध-बल-शाली और यज्ञ में प्रादुर्भत होनेवाले हैं। हम उन्हें सोमरस-पान के लिए, बुलाते हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
4. Mitra and Varupa, renowned as Gods of consecrated might, We call to drink the Soma juice. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Mitra and Varupa, renowned as gods of consecrated might, We call to drink the soma juice. [4]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
4. We invoke Mitra and Varuna becoming present at the sacrifice, and of pure strength, to drink the Soma juice.

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