ऋग्वेद 1.26.9
अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥9॥
पदपाठ — देवनागरी
अथ॑। नः॒। उ॒भये॑षाम्। अमृ॑त। मर्त्या॑नाम्। मि॒थः। स॒न्तु॒। प्रऽश॑स्तयः॥ 1.26.9
PADAPAATH — ROMAN
atha | naḥ | ubhayeṣām | amṛta | martyānām | mithaḥ | santu | pra-śastayaḥ
देवता — अग्निः ; छन्द — आर्च्युष्णिक् ;
स्वर — ऋषभः ; ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर ! आपकी कृपा से जैसे उत्तम गुण कर्मों के ग्रहण से (अथ) अनन्तर (नः) हम लोग जो कि विद्वान् वा मूर्ख हैं (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में (प्रशस्तयः) प्रशंसा (सन्तु)हों वैसे सब मनुष्यों की हों ऐसी प्रार्थना करते हैं॥9॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते तब तक वे सुखों के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते इसलिये सबको योग्य है कि परमेश्वर की आज्ञा में वर्तमान होकर सबका कल्याण करें॥9॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
6. अग्निदेव! तुम अमर हो और हम मरणशील मनुष्य हैं। आओ, हम परस्पर प्रशंसा करें।
R T H Griffith
9. And, O Immortal One, so may the eulogies of mortal men Belong to us and thee alike.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
And, immortal One, so may the eulogies of mortal men Belong to us and you alike. [9]
H H Wilson (On the basis of Sayana)
9. Immortal Agni, may the praises of mankind be henceforth mutually (the sources of happiness) to both, (to ourselves and to you).