ऋग्वेद 1.26.2

नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥2॥

पदपाठ — देवनागरी
नि। नः॒। होता॑। वरे॑ण्यः। सदा॑। य॒वि॒ष्ठ॒। मन्म॑ऽभिः। अग्ने॑। दि॒वित्म॑ता। वचः॑॥ 1.26.2

PADAPAATH — ROMAN
ni | naḥ | hotā | vareṇyaḥ | sadā | yaviṣṭha | manma-bhiḥ | agne | divitmatā | vacaḥ

देवता —        अग्निः ;       छन्द        निचृद्गायत्री ;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि         शुनःशेप आजीगर्तिः 

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (यविष्ठ) अत्यन्त बलवाले (अग्ने) यजमान ! जो (मन्मभिः) जिनसे पदार्थ जाने जाते हैं उन पुरुषार्थों के साथ वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता)सुख देनेवाला (नः) हम लोगों के (दिवित्मता) जिनसे अत्यन्त प्रकाश होता है उससे प्रसिद्ध (वचः) वाणी को (यज) सिद्ध करता है उसी का (सदा) सब काल में संग करना चाहिये॥2॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को योग्य है कि सज्जन मनुष्यों के संग से सकल कामनाओं की सिद्धि करें इसके बिना कोई भी मनुष्य सुखी रहने को समर्थ नहीं हो सकता॥2॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
2. अग्नि! तुम सर्वदा युवक, श्रेष्ठ और तेजस्वी हो। हमारे होमकर्ता और प्रकाशमय वाक्यों द्वारा स्तुत होकर बैठो।

R T H Griffith
2 Sit ever to be chosen, as our Priest., most youthful, through our  HYMNs, O Agni, through our heavenly word. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Sit ever to be chosen, as our priest., most youthful, through our hymns, Agni, through our heavenly word. [2]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
2. (Propiaated) by brilliant strains, do your, ever-youthful Agni, selected by us, become our ministrant priest, (invested) with radiance.

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