ऋग्वेद 1.24.7
अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीनाः स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥7॥
पदपाठ — देवनागरी
अ॒बु॒ध्ने। राजा॑। वरु॑णः। वन॑स्य। ऊ॒र्ध्वम्। स्तूप॑म्। द॒द॒ते॒। पू॒तऽद॑क्षः। नी॒चीनाः॑। स्थुः॒। उ॒परि॑। बु॒ध्नः। ए॒षा॒म्। अ॒स्मे इति॑। अ॒न्तः। निऽहि॑ताः। के॒तवः॑। स्यु॒रिति॑ स्युः॥ 1.24.7
PADAPAATH — ROMAN
abudhne | rājā | varuṇaḥ | vanasya | ūrdhvam | stūpam | dṛte | pūta-dakṣaḥ
| nīcīnāḥ | sthuḥ | upari | budhnaḥ | eṣām | asme iti | antaḥ | ni-hitāḥ |
ketavaḥ | syuritisyuḥ
देवता — वरुणः ; छन्द — निचृत्त्रिष्टुप् ;
स्वर — धैवतः; ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे मनुष्यो ! तुम जो (पूतदक्षः) पवित्र बलवाला (राजा) प्रकाशमान (वरुणः) श्रेष्ठ जलसमूह वा सूर्य्यलोक (अबुध्ने) अन्तरिक्ष से पृथक् असदृश्य बड़े आकाश में(वनस्य) जो कि व्यवहारों के सेवने योग्य संसार है जो (ऊर्ध्वम्) उस पर (स्तूपम्)अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः)किरणें (एषाम्) इन संसार के पदार्थों (उपरि) पर (स्थुः) ठहरती हैं (अन्तर्हिताः) जो उनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ (स्युः) हैं और जो (केतवः) किरणें वा प्रज्ञान (अस्मे) हम लोगों में (निहिताः) स्थिर (स्युः) होते हैं उनको यथावत् जानो॥7॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जिससे यह सूर्य्य रूप के न होने से अन्तरिक्ष का प्रकाश नहीं कर सकता इससे जो ऊपरली वा बिचली किरणें हैं वे ही मेघ की निमित्त हैं जो उनमें जल के परमाणु रहते तो हैं परन्तु वे अतिसूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते इसी प्रकार वायु अग्नि और पृथिवी आदि के भी अतिसूक्ष्म अवयव अन्तरिक्ष मे रहते तो अवश्य हैं परन्तु वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते॥7॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. पवित्र-बलशाली वरुण आदि-रहित अन्तरिक्ष में रहकर श्रेष्ठ तेजःपुञ्ज को ऊपर ही धारण करते हैं। तेजः-पुञ्ज का मुख नीचे और मूल ऊपर है। उसी के द्वारा हमारे प्राण स्थिर रहते हैं।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. Varuna, King, of hallowed might, sustaineth erect the Tree’s stem in the
baseless region. Its rays, whose root is high above, stream downward. Deep may
they sink within us, and be hidden.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Varuna, King, of hallowed might, sustains erect the Tree’s stem in the
baseless region. Its rays, whose root is high above, stream downward. Deep may
they sink within us, and be hidden. [7]
H H Wilson (On the basis of Sayana)
7. The regal Varuna, of pure vigour (abiding) in the baseless (firmament), sustains on high a heap of light, the rays (of which) are pointed downwards, while their base is above: may they become concentrated in us as the sources of existence.
The epithet of Raja is here, as usual, applied to Varuna; and it may be either radiant or regal, but the latter is in general the more suitable. The attributes here assigned to Varuna, his abiding in the Antariksa, and his holding a bundle of rays, would rather idenafy him with the sun, or at least, refer to him in his character of an Aditya. The terms of the original are, however, unusual, and we depend for their translation upon the Scholiast: abudhne, in the baseless; mula-rahite, he explains, antarikse, in the sky; and for vanasya stupam, he supplies tejasah, or radiance, and sangham, a heap.