ऋग्वेद 1.24.11

तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥11॥

पदपाठ — देवनागरी
तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विःऽभिः॑। अहे॑ळमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑ऽशंस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒॥ 1.24.11

PADAPAATH — ROMAN
tat | tvā | yāmi | brahmaṇā | vandamānaḥ | tat | ā | śāste | yajamānaḥ | haviḥ-bhiḥ | aheḷamānaḥ | varuṇa | iha | bodhi | uru-śaṃsa | mā | naḥ | āyuḥ | pra | moṣīḥ

देवता —        वरुणः;       छन्द        निचृत्त्रिष्टुप् ;       स्वर        धैवतः;      
ऋषि         शुनःशेप आजीगर्तिः  स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर ! जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके(यजमानः) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करनेवाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्)अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है उन आपको (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेड़मानः) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि)आपको प्राप्त होता हूँ। आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोध युक्त कीजिये और (नः) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अतिशीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये।1।  (तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को(आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य्य को (ब्रह्मणा) वेदोक्त क्रिया कुशलता से (वन्दमानः)स्मरण करता हुआ (अहेड़मानः) किन्तु उसके गुणों को न भूलता और (इह) इस संसार में(तनु) उक्त सुख की इच्छा करता हुआ मैं (यामि) प्राप्त होता हूँ कि जिससे यह (उरुशंस)अत्यन्त प्रशंसनीय सूर्य्य हमको (बोधि) विदित होकर (नः) हम लोगों की (आयुः) उमर(मा) (प्रमोषीः) न नष्ट करे अर्थात् अच्छे प्रकार बढ़ावें।2।॥11॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में श्लेषालंकार है। मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्य को जानकर सुखों को प्राप्त होना चाहिये और किसी मनुष्य को परमेश्वर वा सूर्य विद्या का अनादर न करना चाहिये सर्वदा ईश्वर की आज्ञा का पालन और उसके रचे हुये जो कि सूर्यादिक पदार्थ हैं उनके गुणों को जानकर उनसे उपकार लेके अपनी उमर निरन्तर बढ़ानी चाहिये॥11॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
11. मैं स्तोत्र से तुम्हारी स्तुति कर तुम्हारे पास वही परमायु माँगता हूँ। हव्य-द्वारा यजमान भी उसे ही पाने की प्रार्थना करता है। वरुण! तुम इस विषय में उदासीन न होकर ध्यान दो। तुम अनन्त जीवों के प्रार्थना-पात्र हो। मेरी आयु मत लो।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
11. I ask this of thee with my prayer adoring; thy worshipper craves this with his oblation. Varuna, stay thou here and be not angry; steal not our life from us, O thou Wide-Ruler. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
I ask this of you with my prayer adoring; your worshipper craves this with his oblation. Varuna, stay you here and be not angry; steal not our life from us, you Wide-Ruler. [11]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
11. Praising you with (devout) prayer, I implore you for that (life) which the institutor of the sacrifice solicits with oblations: Varuna, undisdainful, bestow a thought upon us: much-lauded, take not away our existence.
That (Life) – The text has ouly, L ask that; the Scholiast supplies life, tadayus. The addiaon might be disputed; but its propriety is confirmed by the concluding expression, ma na ayuh pramosib,2 do not take away our life.

You may also like...