ऋग्वेद 1.23.7

मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृम्पतु॥7॥

पदपाठ — देवनागरी
म॒रुत्व॑न्तम्। ह॒वा॒म॒हे॒। इन्द्र॒म्। आ। सोम॑ऽपीतये। स॒ऽजूः। ग॒णेन॑। तृ॒म्प॒तु॒॥ 1.23.7

PADAPAATH — ROMAN
marutvantam | havāmahe | indram | ā | soma-pītaye | sa-jūḥ | gaṇena | tṛmpatu

देवता —        इन्द्रोमरुत्वान् ;       छन्द        गायत्री;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे मनुष्य लोगो ! जैसे इस संसार में हम लोग (सोमपीतये) पदार्थों के भोगने के लिये जिस (मरुत्वन्तम्) पवनों के सम्बन्ध से प्रसिद्ध होनेवाली (इन्द्रम्) बिजुली को (हवामहे) ग्रहण करते हैं (सजूः) जो सब पदार्थों में एकसी वर्तने वाली (गणेन) पवनों के समूह के साथ (नः) हम लोगों को (आतृम्पतु) अच्छे प्रकार तृप्त करती है वैसे उसको तुम लोग भी सेवन करो॥7॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिस सहायकरी पवन के बिना अग्नि कभी प्रज्वलित होने को समर्थ और उक्त प्रकार बिजुली रूप अग्नि के बिना किसी पदार्थ की बढ़ती का सम्भव नहीं हो सकता, ऐसा जानें॥7॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7, मरुतों के साथ, सोम-पान के लिए, हम इन्द्र का आह्वान करते हैं। वे मरुद्गण के साथ तृप्त हों।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. Indra, by Maruts girt, we call to drink the Soma juice: may he Sate him in union with his troop. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Indra, by Maruts girt, we call to drink the soma juice: may he Sate him in union with his troop. [7]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
7. We invoke Indra, attended by the Maruts to drink the Soma juice: may he, with his associates, be satisfied.

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