ऋग्वेद 1.23.17
अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥17॥
पदपाठ — देवनागरी
अ॒मूः। याः। उप॑। सूर्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्यः॑। स॒ह। ताः। नः॒। हि॒न्व॒न्तु॒। अ॒ध्व॒रम्॥ 1.23.17
PADAPAATH — ROMAN
amūḥ | yāḥ | upa | sūrye | yābhiḥ | vā | sūryaḥ | saha | tāḥ | naḥ |
hinvantu | adhvaram
देवता — आपः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(याः) जो (अमूः) जल दृष्टिगोचर नहीं होते (सूर्य्ये) सूर्य वा इसके प्रकाश के मध्य में वर्त्तमान हैं (वा) अथवा (याभिः) जिन जलों के (सह) साथ सूर्य लोक वर्त्तमान है (ताः) वे (नः) हमारे (अध्वरम्) हिंसारहित सुखरूप यज्ञ को (उपहिन्वन्तु) प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं॥17॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो जल पृथिवी आदि मूर्त्तिमान् पदार्थों से सूर्य्य की किरणों करके छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण होता हुआ सूर्य्य के सामने ऊपर को जाता है, वही ऊपर से वृष्टि के द्वारा गिरा हुआ पान व्यवहार वा विमान आदि यानों में अच्छे प्रकार संयुक्त किया हुआ सुख बढ़ाता है॥17॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
17, यह जो सारा जल सूर्य के पास है अथवा सूर्य जिस सब जल के साथ हैं वह सब जल हमारे यज्ञ को प्रेम-पात्र करे।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
17. May Waters gathered near the Sun, and those wherewith the Sun is
joined, Speed forth this sacrifice of ours.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
May Waters gathered near the Sun, and those wherewith the Sun is joined, Speed forth this sacrifice of ours. [17]
H H Wilson (On the basis of Sayana)
17. May those waters which are contiguous to the Sun, and those with which the Sun is associated, be propiaous to our rite. So in another text, Apah surye samahitah, 1. the waters are collected in the Sun.