ऋग्वेद 1.21.2
ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः। ता गायत्रेषु गायत॥2॥
पदपाठ — देवनागरी
ता। य॒ज्ञेषु॑। प्र। शं॒स॒त॒। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। शु॒म्भ॒त॒। न॒रः॒। ता। गा॒य॒त्रेषु॑। गा॒य॒त॒॥ 1.21.2
PADAPAATH — ROMAN
tā | yajñeṣu | pra | śaṃsata | indrāgnī iti | śumbhata | naraḥ | tā |
gāyatreṣu | gāyata
देवता — इन्द्राग्नी ; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (नरः) यज्ञ करनेवाले मनुष्यो ! तुम जिस पूर्वोक्त (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि के (प्रशंसत) गुणों को प्रकाशित तथा (शुम्भत) सब जगह कामों में प्रदीप्त करते हो (ता) उनको (गायत्रेषु) गायत्री छन्दवाले वेद के स्तोत्रों में (गायत) षड्ज आदि स्वरों से गाओ॥2॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
कोई भी मनुष्य अभ्यास के बिना वायु और अग्नि के गुणों के जानने वा उनसे उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते॥2॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
2. मनुष्यगण! इस यज्ञ में उन्हीं इन्द्र और अग्नि की प्रशंसा करो और उन्हें सुशोभित करो; उन्हीं दोनों के उद्देश्य से गायत्री छन्द द्वारा गाओ।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
2 Praise ye, O men, and glorify Indra-Agni in the holy rites: Sing praise
to them in sacred songs.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
Praise you, men, and glorify Indra-Agni in the holy rites: Sing praise to them in sacred songs. [2]
H H Wilson (On the basis of Sayana)
2. Praise, men, Indra and Agni, in sacrifices, decorate them (with ornaments) and hymn them with hymns.