ऋग्वेद 1.19.7

य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम्। मरुद्भिरग्न आ गहि॥7॥

पदपाठ — देवनागरी
ये। ई॒ङ्खय॑न्ति। पर्व॑तान्। ति॒रः। स॒मु॒द्रम्। अ॒र्ण॒वम्। म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒॥ 1.19.7

PADAPAATH — ROMAN
ye | īṅkhayanti | parvatān | tiraḥ | samudram | arṇavam | marut-bhiḥ | agne | ā | gahi

देवता —        अग्निर्मरुतश्च ;       छन्द        गायत्री;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(ये) जो वायु (पर्वतान्) मेघों को (ईङ्खयन्ति) छिन्न-भिन्न करते और वर्षाते हैं, (अर्णवम्) समुद्र का (तिरः) तिरस्कार करते वा (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को जल से पूर्ण करते हैं, उन (मरुद्भिः) पवनों के साथ (अग्ने) अग्नि अर्थात् बिजुली (आगहि) प्राप्त होती अर्थात् सन्मुख आती जाती है॥7॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
वायु के संयोग से ही वर्षा होती है और जल के कण वा रेणु अर्थात् सब पदार्थों के अत्यन्त छोटे-2 कण पृथिवी से अन्तरिक्ष को जाते तथा वहां से पृथिवी को आते हैं, उनके साथ वा उनके निमित्त से बिजुली उत्पन्न होती और बादलों में छिप जाती है॥7॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7, जो मेघ-माला का संचालन करते और जल-राशि को समुद्र में गिराते हैं, अग्नि! उन्हीं मरुदगण के साथ आओ।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. Who scatter clouds about the sky, away over the billowy sea: O Agni, with those Maruts come. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Who scatter clouds about the sky, away over the billowy sea: Agni, with those Maruts come. [7]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
7. Who scatter the clouds, and agitate the sea (with waves): come, Agni, with the Maruts.

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