ऋग्वेद 1.17.6
तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि। स्यादुत प्ररेचनम्॥6॥
पदपाठ — देवनागरी
तयोः॑। इत्। अव॑सा। व॒यम्। स॒नेम॑। नि। च॒। धी॒म॒हि॒। स्यात्। उ॒त। प्र॒ऽरेच॑नम्॥ 1.17.6
PADAPAATH — ROMAN
tayoḥ | it | avasā | vayam | sanema | ni | ca | dhīmahi | syāt | uta |
pra-recanam
देवता — इन्द्रावरुणौ ; छन्द — निचृद्गायत्री ;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हम लोग जिन इंद्र और वरुण के (अवसा) गुणज्ञान व उनके उपकार करने से (इत्) ही जिन सुख और उत्तम धनों को (सनेम) सेवन करें (तयोः) उनके निमित्त से (च) और उनसे प्राप्त हुए असंख्यात धन को (निधीमहि) स्थापित करें, अर्थात् कोश आदि उत्तम स्थानों में भरें, और जिन धनों से हमारा (प्ररेचनम्) अच्छी प्रकार अत्यन्त खरच (उत) भी (स्यात्) सिद्ध हो॥6॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को उचित है कि अग्नि आदि पदार्थों के उपयोग से पूरण धन को सम्पादन और उसकी रक्षा व उन्नति करके यथायोग्य खर्च करने से विद्या और राज्य की वृद्धि से सबके हित की उन्नति करनी चाहिये॥6॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
6. उनके रक्षण से हम धन का उपयोग और संचय करते हैं। इसके अतिरिक्त हमारे पास यथेष्ट धन हो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
6. Through their protection may we gain great store of wealth, and heap it
up Enough and still to spare, be ours.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
Through their protection may we gain great store of wealth, and heap it up Enough and still to spare, be ours. [6]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
6. Through their protection, we enjoy (riches) and heap them up, and still there is abundance.