ऋग्वेद 1.17.3

अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ। ता वां नेदिष्ठमीमहे॥3॥

पदपाठ — देवनागरी
अ॒नु॒ऽका॒मम्। त॒र्प॒ये॒था॒म्। इन्द्रा॑वरुणा। रा॒यः। आ। ता। वा॒म्। नेदि॑ष्ठम्। ई॒म॒हे॒॥ 1.17.3

PADAPAATH — ROMAN
anukāmam | tarpayethām | indrāvaruṇā | rāyaḥ | ā | tā | vām | nediṣṭham | īmahe

देवता        इन्द्रावरुणौ ;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो (इन्द्रावरुण) अग्नि और जल (अनुक्रामम्) हर एक कार्य्य में (रायः) धनों को देकर (तर्प्पयेथाम्) तृप्ति करते हैं, (ता) उन (वाम्) दोनों को हम लोग (नेदिष्ठम्) अच्छी प्रकार अपने निकट जैसे हों, वैसे (ईमहे) प्राप्त करते हैं॥3॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को योग्य है कि जिस प्रकार अग्नि और जल के गुणों को जानकर क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए ये दोनों बहुत उत्तम-2 सुखों को प्राप्त करें,उस युक्ति के साथ कार्य्यों में अच्छी प्रकार इनका प्रयोग करना चाहिये॥3॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
3. इन्द्र और वरुण! मारे मनोरथ के अनुसार, धन देकर हमें तृप्त करो। हमारी यही इच्छा है कि तुम हमारे पास रहो।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
3. Sate you, according to your wish, O Indra-Varuna, with wealth: Fain would we have you nearest us. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Sate you, according to your wish, Indra-Varuna, with wealth: Fain would we have you nearest us. [3]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
3. Satisfy us with wealth, Indra and Varuna, according to our desires: we desire you ever near us.

You may also like...