ऋग्वेदः 1.9.3

मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभिः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥3॥

पदपाठ — देवनागरी
मत्स्व॑। सु॒ऽशि॒प्र॒। म॒न्दिऽभिः। स्तोमे॑भिः। वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒। सचा॑। ए॒षु। सव॑नेषु। आ॥ 1.9.3

PADAPAATH — ROMAN
matsva | su-śipra | mandi-bhiḥ | stomebhiḥ | viśva-carṣaṇe | sacā | eṣu | savaneṣu | ā

देवता        इन्द्र:;       छन्द        निचृद्गायत्री ;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (विश्वचर्षणे) सब संसार के देखने तथा, (सुशिप्र) श्रेष्ठ ज्ञानयुक्त परमेश्वर! आप (मन्दिभिः) जो विज्ञान वा आनन्द के करने वा करानेवाले, (स्तोमेभिः) वेदोक्त स्तुतिरूप गुणप्रकाश करनेहारे स्तोत्र हैं उनसे स्तुति को प्राप्त होकर, (एषु) इन प्रत्यक्ष, (सवनेषु) ऐश्वर्य्यदेने वाले पदार्थों में हमलोगों को, (सचा) युक्त होकर, (मत्स्व) अच्छे प्रकार आनन्दित कीजिये॥3॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जिसने संसार के प्रकाश करनेवाले सूर्य्य को उत्पन्न किया है, उसकी स्तुति करने में जो श्रेष्ठपुरुष एकाग्रचित्त हैं, अथवा सबको देखनेवाले परमेश्वर को जानकर सब प्रकार से धार्मिक और पुरुषार्थी होकर सब ऐश्वर्य्य को उत्पन्न और उसकी रक्षा में मिलकर रहते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होने के योग्यवा औरों को भी उत्तम-2 सुखों के देनेवाले हो सकते हैं॥3॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
3. हे सुन्दर नासिकावाले और सबके अधीश्वर इन्द्र! प्रसन्नताकारक स्तुतियों से प्रसन्न हो और देवों के साथ इस सवन-यज्ञ में पधारो।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
3. O Lord of all men, fair of cheek, rejoice thee in the gladdening lauds, Present at these drink-offerings. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Lord of all men, fair of cheek, rejoice you in the gladdening lauds, Present at these drink-offerings. [3]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
3. Indra with the handsome chin, be pleased with these animating praises: do your, who are to be reverenced by all mankind, (come) to these rites (with the gods).
With the Handsome Chin- Su-sipra; but Sipra means either the lower jaw, or the nose,1. and the compound may equally denote the handsome-nosed.
Reverenced by all Mankind- The epithet, visvacarsane, is literally, oh! your who are all men, or as Sayana explains it, sarva­manusya-yukta, who are joined with all men, which he qualifies as, sarvair yajamanaib pujyah, to be worshipped by all institutors of sacrifices. It may be doubted if this be all that is intended; Rosen renders it, omnium hominum domine; M. Langlois has, maitre souverain.

You may also like...