ऋग्वेदः 1.8.9
एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे॥9॥
पदपाठ — देवनागरी
ए॒व। हि। ते॒। विऽभू॑तयः। ऊ॒तयः॑। इ॒न्द्र॒। माऽव॑ते। स॒द्यः। चि॒त्। सन्ति॑। दा॒शुषे॑॥ 1.8.9
PADAPAATH — ROMAN
eva | hi | te | vi-bhūtayaḥ | ūtayaḥ | indra | māvate | sadyaḥ | cit |
santi | dāśuṣe
देवता
— इन्द्र:; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे, (इन्द्र) जगदीश्वर! आपकी कृपा से जैसे, (ते) आपके, (विभूतयः) जो-2 उत्तम ऐश्वर्य्य और, (ऊतयः) रक्षा विज्ञान आदि गुण मुझको प्राप्त, (सन्ति) हैं। वैसे, (मावते) मेरे तुल्य, (दाशुषेचित्) सबके उपकार और धर्म में मन को देनेवाले पुरुष को, (सद्य एव) शीघ्र ही प्राप्त हो॥9॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में लुप्तोपमालंकार है। ईश्वर की आज्ञा का प्रकाश इस रीति से किया है कि- जब मनुष्य पुरुषार्थी होके सबको उपकार करनेवाले और धार्मिक होते हैं,तभी वे पूर्ण ऐश्वर्य्य और ईश्वर की यथायोग्य रक्षा आदि को प्राप्त होके सर्वत्र सत्कार के योग्य होते हैं॥9॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
9. इन्द्र! तुम्हारा ऐश्वर्य ही ऐसा है। वह हमारे जैसे हव्यदाता का रक्षक और शीघ्र फलदायी है।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
9. For verily thy mighty powers, Indra, are saving helps at once Unto a
worshipper like me.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
For verily your mighty powers, Indra, are saving helps at once To a worshipper like me. [9]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
9. Verily, Indra, your glories are at all times the protectors of every such worshipper as I am.