ऋग्वेदः 1.5.9

अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम् । यस्मिन्विश्वानि पौंस्या ॥9॥

पदपाठ — देवनागरी
अक्षि॑तऽऊतिः । स॒ने॒त् । इ॒मम् । वाज॑म् । इन्द्रः॑ । स॒ह॒स्रिण॑म् । यस्मि॑न् । विश्वा॑नि । पौंस्या॑ ॥ 1.5.9

PADAPAATH — ROMAN
akṣita-ūtiḥ | sanet | imam | vājam | indraḥ | sahasriṇam | yasmin | viśvāni | paiṃsyā

देवता        इन्द्र:;       छन्द        निचृद्गायत्री ;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो (अक्षितोतिः) नित्य ज्ञानवाला (इन्द्र) सब ऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर है वह कृपा करके हमारे लिये (यस्मिन्) जिस व्यवहार में (विश्वानि) सब (पौंस्या) पुरुषार्थसे युक्त बल है (इमम्) इस (सहस्रिणम्) असंख्यात सुखदेनेवाले (वाजम्) पदार्थों के विज्ञानको (सनेत्) सम्यक् सेवन करावे कि जिससे हम लोग उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों ॥9॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जिसकी सत्ता से संसार के पदार्थ बलवान् होकर अपने-अपने व्यवहारों में वर्त्तमान हैं, उन सब बल आदि गुणों से उपकार लेकर विश्व के नानाप्रकार के सुख भोगने के लिये हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ करें, तथा ईश्वर इस प्रयोजन में हमारा सहाय करे, इसलिये हम लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं ॥9॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
9. इन्द्र रक्षा में सदा तत्पर रहकर यह सहस्र-संख्यक अर्थ ग्रहण करें। इसी अन्न या सोमरस में पौरुष रहता है।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
9. Indra, whose succour never fails, accept these viands thousandfold, Wherein all manly powers abide. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Indra, you whose succour never fails, accept these viands thousand fold, Wherein all manly powers abide. [9]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
9. May Indra, the unobstructed protector, enjoy these manifold (sacrificial) viands, in which all manly properties abide.

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