ऋग्वेदः 1.4.6

उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः । स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥6॥

पदपाठ — देवनागरी
उ॒त । नः॒ । सु॒भगा॑न् । अ॒रिः । वो॒चेयुः॑ । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टयः॑ । स्याम॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि ॥ 1.4.6

PADAPAATH — ROMAN
uta | naḥ | subhagān | ariḥ | voceyuḥ | dasma | kṛṣṭayaḥ | syāma | it | indrasya | śarmaṇi

देवता        इन्द्र:;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (दस्म) दुष्टों को दंड देनेवाले परमेश्वर ! हम लोग (इन्द्रस्य) आपके दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों और ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को (वोचेयुः) उपदेश से प्राप्त करें जिससे सत्य उपदेश को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (अरिः) (उत) शत्रु भी (सुभगान्) श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्य्ययुक्त जानें वा कहें ॥6॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जब सब मनुष्य विरोध को छोडकर सबके उपकार करने में प्रयत्न करते हैं तब शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा से वा निरंतर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं ॥6॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
6. हे रिपुमर्दन इन्द्र! तुम्हारी कृपा से शत्रु और मित्र-दोनों हमें सौभाग्यशाली कहते हैं। हम इन्द्र के प्रसाद-प्राप्त सुख में निवास करें।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
6. Or whether, God of wondrous deeds, all our true people call us blest, Still may we dwell in Indra’s care. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Or whether, god of wondrous deeds, all our true people call us blest, Still may we dwell in Indra’s care. [6]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
6. Destroyer of foes, let our enemies say we are prosperous; let men (congratulate us); may we ever abide, in the felicity (derived from the favour) of Indra.

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