ऋग्वेदः 1.4.5
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इद्दुवः ॥5॥
पदपाठ — देवनागरी
उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । नः॒ । निदः॑ । निः । अ॒न्यतः॑ । चित् । आ॒र॒त॒ । दधा॑नाः । इन्द्रे॑ । इत् । दुवः॑ ॥ 1.4.5
PADAPAATH — ROMAN
uta | bruvantu | naḥ | nidaḥ | niḥ | anyataḥ | cit | ārata | dadhānāḥ | indre | it | duvaḥ
देवता — इन्द्र:; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्तमान हैं वेही। (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धृर्त मनुष्य हैं वे सब हम लोगों के निवास स्थान से (निरारत) दूर चले जावें किन्तु (उत) निशचय करके और देशों से भी दूर हो जाय अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें ॥5॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
सब मनुष्यों को उचित है कि प्राप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के संग को सर्वथा छोडके ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृध्दि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार, दुष्टों को दंड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की वृध्दि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे ॥5॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
5. सदा इन्द्र-सेवक हमारे सम्बन्धी पुरोहित लोग इन्द्र की स्तुति करें और इन्द्र के निन्दक इस देश और अन्य देशों से भी दूर हो जायें।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
5 Whether the men who mock us say, Depart unto another place, Ye who serve Indra and none else;
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
Whether the men who mock us say, Depart to another place, You who serve Indra and none else; [5]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
5. Let our ministers, earnestly performing his worship, exclaim, Depart your revilers from hence and every other place (where he is adored).
The Scholiast would explain bruvantu, let them say, by let them praise Indra, but this does not seem to be necessary; the sense is connected with what follows, let them say procul este profani.