ऋग्वेदः 1.3.12

महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वा वि राजति ॥12॥

पदपाठ — देवनागरी
म॒हः । अर्णः॑ । सर॑स्वती । प्र । चे॒त॒य॒ति॒ । के॒तुना॑ । धियः॑ । विश्वाः॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥ 1.3.12

PADAPAATH — ROMAN
mahaḥ | arṇaḥ | sarasvatī | pra | cetayati | ketunā | dhiyaḥ | viśvāḥ | vi | rājati

देवता        सरस्वती;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ-कर्म अथवा श्रेष्ठ (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्रको (प्रचेतयति) जनानेवाली है मनुष्योंकी (विश्वाः) सब बुद्धियों को विशेष करके प्रकाश करती है ॥12॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में वाचकोपमेय लुप्तोपमालंकार दिखलाया है। जैसे वायु से तरंगयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बडा भारी माना जाता, है वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाश करानेवाली वेदवाणी और विद्वानों का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढानेवाला होता है ॥
और जो दूसरे सूक्त की विद्या का प्रकाश करके क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्धि करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति का निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये कि दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थकी संगति है।
इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य आदि नवीन पंडितों ने बुरी प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इस प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है ॥12॥
यह प्रथम अनुवाक, तीसरा सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
12. प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की है और इसके सिवा समस्त ज्ञानों का भी जागरण किया है।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
12 Sarasvati, the mighty flood,- she with be light illuminates, She brightens every pi ous thought. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
Sarasvati, the mighty flood,- she with light illuminates, She brightens every pious thought.[12]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
12. Sarasvati makes manifest by her acts a mighty river, and (in her own form) enlightens all understandings. Sarasvati is here identified with the river so named.1

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