ऋग्वेदः 1.2.1
वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः ।तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥1॥
पदपाठ — देवनागरी
वायो॒ इति॑ । आ । या॒हि॒ । द॒र्श॒त॒ । इ॒मे । सोमाः॑ । अरं॑ऽकृताः । तेषा॑म् । पा॒हि॒ । श्रु॒धि । हव॑म् ॥ 1.2.1
PADAPAATH — ROMAN
vāyo iti | ā | yāhi | darśata | ime | somāḥ | araṃ-kṛtāḥ | teṣām | pāhi |
śrudhi | havam
देवता — वायु:; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
“(दर्शत) हे ज्ञान से देखने योग्य (वायो) अनन्त बलयुक्त सबके प्राणरूप अन्तर्यामी परमेश्वर ! आप हमारे हृदय में (आयाहि) प्रकाशित हूजिये कैसे आप हैं कि जिन्होंने (इमे) इन प्रत्यक्ष (सोमाः) संसारी पदार्थों को (अरंकृता) अलंकृत अर्थात् सुशोभित कर रक्खा है (तेषां) आप ही उन पदार्थों के रक्षक हैं इससे उनकी (पाहि) रक्षा भी कीजिये और (हवं) हमारी स्तुति को (श्रुधि) सुनिये। तथा (दर्शत) स्पर्शादि गुणों से देखने योग्य (वायो) सब मूर्त्तिमान् पदार्थों का आधार और प्राणियों के जीवन का हेतु भौतिक वायु (आयाहि) सबको प्राप्त होता है फिर जिस भौतिक वायु ने (इमे) प्रत्यक्ष (सोमाः) संसार के पदार्थों को (अरंकृताः) शोभायमान किया है वही (तेषाम्) उन पदार्थों की (पाहि) रक्षा का हेतु है और (हवम्) जिससे सब प्राणी लोग कहने और सुनने रूप व्यवहार को (श्रुधि) कहते सुनते हैं ॥ आगे ईश्वर और भौतिक वायु के पक्ष में प्रमाण दिखलाते हैं (प्रवावृजे0) इस प्रमाण में वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक वायु पुष्टिकारी और जीवों को यथायोग्य कामों में पहुँचानेवाले गुणों से ग्रहण किये गये हैं (अथातो0) जो-जो पदार्थ अन्तरिक्ष में हैं उनमें प्रथमागामी वायु अर्थात् उन पदार्थों में रमण करनेवाला कहाता है तथा सब जगत् को जानने से वायु शब्द करके परमेश्वर का ग्रहण होता है। तथा मनुष्य लोग वायु से प्राणायाम करके और उनके गुणों के ज्ञानद्वारा परमेश्वर और शिल्प विद्यामय यज्ञ को जान सकता है इस अर्थ से वायु शब्द करके ईश्वर और भौतिक का ग्रहण होता है अथवा जो चराचर जगत् में व्याप्त हो रहा है। इस अर्थ से वायु शब्द करके परमेश्वर का तथा जो सबलोकों को परिधि रूप से घेर रहा है इस अर्थ से भौतिक का ग्रहण होता है क्योंकि परमेश्वर अन्तर्यामीरूप और भौतिक प्राणरूप से संसार में रहनेवाले हैं इन्हीं दो अर्थों की कहनेवाली वेद की (वायवायाहि0) यह ॠचा जाननी चाहिये। इसी प्रकार से इस ॠचा का (वायवायाहि दर्शनीये0) इत्यादि व्याख्यान निरुक्तकार ने भी किया है सो संस्कृत में देख लेना वहाँ भी वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक इन दोनों का ग्रहण है जैसे (वायुः सोमस्य0) वायु अर्थात् परमेश्वर उत्पन्न हुए जगत् की रक्षा करनेवाला और उसमें व्याप्त होकर उसके अंश-अंश के साथ भर रहा है इस अर्थ से ईश्वर का तथा सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस हरने और समुद्रादिकों के जल को ग्रहण करने से भौतिक वायु का ग्रहण जानना चाहिये (वायुर्वा अ0) इत्यादि वाक्यों में वायु को अग्नि के अर्थ में भी लिया है। परमेश्वर का उपदेश है कि मैं वायुरूप होकर इस जगत् को आप ही प्रकाश करता हूँ तथा मैं ही अन्तरिक्ष लोक में भौतिक वायु को अग्नि के तुल्य परिपूर्ण और यज्ञादिकों को वायुमण्डल में पहुँचानेवाला हूँ ॥1॥”
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में श्लेषालंकार है। जैसे परमेश्वर के सामर्थ्य से रचे हुए पदार्थ नित्य ही सुशोभित होते हैं, वैसे ही जो ईश्वर का रचा हुआ भौतिक वायु है, उसकी धारणा से भी सब पदार्थों की रक्षा और शोभा तथा जैसे जीव की प्रेमभक्ति से की हुई स्तुति को सर्वगत ईश्वर प्रतिक्षण सुनता है, वैसे ही भौतिक वायु के निमित्त से भी जीव शब्दों के उच्चारण और श्रवण करने को समर्थ होता है ॥1॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
1. हे प्रियदर्शन वायु! आओ। सोमरस तैयार है। इसे पान करो और पान के लिए हमारा आह्वान सुनो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
1. BEAUTIFUL Vayu, come, for thee these Soma drops have been prepared:
Drink of them, hearken to our call.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
BEAUTIFUL Vayu, come, for you these soma drops have been prepared: Drink of them, listen well to our call. [1]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
1. Vayu, pleasant to behold, approach: these libations are prepared for you drink of them; hear our invocation.
Vayu is invoked in a visible form as the deity presiding over the wind; it is doubtful if the expressions which in this and similar instances intimate personality, are to be understood as indicating actual figures or idols; the personification is probably only poetical. These Libations- These Somas are libations of the juice of the Soma plant, the acid Asclepias or Sarcostema viminalis, which yields to expression a copious milky juice, of a mild nature and sub-acid taste Roxburgh, 2, 32. According to Mr. Stevenson, it is not used in sacrifices until it has gone through the process of fermentation and has become a strong spirituous beverage. Introduction to Translation of the Samaveda. This is warranted by numerous expressions in the following hymns. It is evidently the Homa of the Parsis, although they affirm that the plant is not to be found in India, and procure it from the mountains of Ghilan and Mazenderan, and the neighbourhood of Yezd.