ऋग्वेदः 1.15.6
युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे॥6॥
पदपाठ — देवनागरी
यु॒वम्। दक्ष॑म्। धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒। मित्रा॑वरुणा। दुः॒ऽदभ॑म्। ऋ॒तुना॑। य॒ज्ञम्। आ॒शा॒थे॒ इति॑॥ 1.15.6
PADAPAATH — ROMAN
yuvam | dakṣam | dhṛta-vratā | mitrāvaruṇā | duḥ-dabham | ṛtunā | yajñam |
āśātheiti
देवता — मित्रावरुणौ ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-2 जिस-2 वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं उन-2 को जानकर कार्य्यों को सिद्ध करना चाहिये। और उनसे सिद्ध किये हुये धन से सब ॠतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये, तथा युक्ति के साथ सेवन किये हुये पदार्थ मित्र के समान होते और इससे विपरीत शत्रु के समान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥5॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो सबका मित्र बाहर आनेवाला प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाला उदान है,इन्हीं से प्राणी ॠतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं, जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥6॥
यह अट्ठाईसवां वर्ग पूरा हुआ॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
6. धृत-व्रत मित्र और वरुण! तुम लोग ऋतु के साथ हमारे इस प्रवृद्ध और शत्रुओं-द्वारा अदहनीय यज्ञ में व्याप्त हो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
6. Mitra, Varuna, ye whose ways are firm – a Power that none deceives-,
With Rtu ye have reached the rite.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Mitra, Varuna, you whose ways are firm – a Power that none deceives-, With
Ritu you have reached the rite. [6]
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
6. Mitra and Varuna, propitious to pious acts, be present
with Rtu at our sacrifice, efficacious and undisturbed (by foes).