ऋग्वेदः 1.10.7
सुविवृतं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः। गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः॥7॥
पदपाठ — देवनागरी
सु॒ऽवि॒वृत॑म्। सु॒निः॒ऽअज॑म्। इन्द्र॑। त्वाऽदा॑तम्। इत्। यशः॑। गवा॑म्। अप॑। व्र॒जम्। वृ॒धि॒। कृ॒णु॒ष्व। राधः॑। अ॒द्रि॒ऽवः॒॥ 1.10.7
PADAPAATH — ROMAN
su-vivṛtam | suniḥ-ajam | indra | tvādātam | it | yaśaḥ | gavām | apa |
vrajam | vṛdhi | kṛṇuṣva | rādhaḥ | adri-vaḥ
देवता
— इन्द्र:; छन्द — अनुष्टुप् ; स्वर — गान्धारः ;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जैसे यह, (अद्रिवः) उत्तम प्रकाश आदि धनवाला, (इन्द्रः) सूर्य्यलोक, (सुनिरजं) सुख से प्राप्त होने योग्य, (त्वादातं) उसी से सिद्ध होनेवाले, (यशः) जल को, (सुविवृतं) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त, (गवां) किरणों के, (व्रजं) समूह को संसार में प्रकाश होने के लिये, (अपवृधि) फ़ैलता तथा, (राधः) धन को प्रकाशित, (कृणुष्व) करता है। वैसे हे, (अद्रिवः) प्रशंसा करने योग्य, (इन्द्र) महायशस्वी सब पदार्थों के यथायोग्य बांटनेवाले परमेश्वर! आप हमलोगों के लिये, (गवां) अपने विषय को प्राप्त होनेवाली मन आदि इन्द्रियों के ज्ञान और उत्तम-2 सुख देनेवाले पशुओं के, (व्रजं) समूह को, (अपवृधि) प्राप्त करके उनके सुख के दरवाजे को खोल तथा, (सुविवृतं) देश देशान्तर में प्रसिद्ध और, (सुनिरजं) सुख से करने और व्यवहारों में यथायोग्य प्रतीत होने के योग्य, (यशः) कीर्तिको बढ़ानेवाले अत्त्युत्तम, (त्वादातं) आपके ज्ञान से शुद्ध किया हुआ, (राधः) जिससे कि अनेक सुख सिद्ध हों ऐसे विद्या सुवर्णादि धन को हमारे लिये, (कृणुष्व) कृपा करके प्राप्त कीजिये॥7॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालंकार है। हे परमेश्वर ! जैसे आपने सूर्य्यादि जगत् को उत्पन्न करके अपना यश और संसार का सब सुख प्रसिद्ध किया है।वैसे ही आपकी कृपा से हम लोग भी अपने मन आदि इन्द्रियों की शुद्धि के साथ विद्या और धर्म के प्रकाश से युक्त तथा सुखपूर्वक सिद्ध और अपनी कीर्ति,विद्याधन और चक्रवर्त्ति राज्य का प्रकाश करके सब मनुष्यों को निरन्तर आनन्दित और कीर्तिमान् करें॥7॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. इन्द्र! तुम्हारा दिया हुआ धन सर्वत्र फैला हुआ और सुखप्राप्य है। हे वस्त्रधारक इन्द्र! गौ का वसति-द्वार उद्घाटन करो और धन सम्पादन करो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. Easy to turn and drive away, Indra, is spoil bestowed by thee. Unclose
the stable of the kine, and give us wealth O Thunder-armed
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
Easy to turn and drive away, Indra, is spoil bestowed by you. Unclose the stable of the kine, and give us wealth Thunder-armed [7]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
7. Indra, by you is food (rendered) everywhere abundant, easy of attainment, and assuredly perfect: wielder of the thunderbolt, set open the cow-pastures, and provide (ample) wealth.
The text is literally rendered: the meaning being that Indra, as the sender of rain, should fertilize the fields, and by providing abundant pasturage, enable the cattle to yield store of milk.