ऋग्वेदः 1.10.2

यत्सानोः सानुमारुहद्भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्। तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति॥2॥

पदपाठ — देवनागरी
यत्। सानोः॑। सानु॑म्। आ। अरु॑हत्। भूरि॑। अस्प॑ष्ट। कर्त्व॑म्। तत्। इन्द्रः॑। अर्थ॑म्। चे॒त॒ति॒। यू॒थेन॑। वृ॒ष्णिः। ए॒ज॒ति॒॥ 1.10.2

PADAPAATH — ROMAN
yat | sānoḥ | sānum | ā | aruhat | bhūri | aspaṣṭa | kartvam | tat | indraḥ | artham | cetati | yūthena | vṛṣṇiḥ | ejati

देवता        इन्द्र:;       छन्द        विराड्नुष्टुप् ;       स्वर        गान्धारः ;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जैसे, (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ, (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने प्रकाश करके, (सानोः) पर्वत के एक शिखर से, (सानुं) दूसरे शिखर को, (भूरि) बहुधा, (आरुहत्) प्राप्त होता, (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ, (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घूमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को, (कर्त्तुं) करने को, (भूरि) बहुधा, (आरुहत्) आरम्भ तथा, (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ, (एजति) प्राप्त होता है उस पुरुष के लिये, (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर इन कर्मों के करने को, (सानोः) अनुक्रम से, (अर्थं) प्रयोजन के विभाग के साथ, (भूरि) अच्छी प्रकार, (चेतति) प्रकाश करता है॥2॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में भी ‘इव’ शब्द की अनुवृत्ति से उपमालंकार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सन्मुख के पदार्थों को वायु के साथ बारम्बार क्रम से अच्छीप्रकार आक्रमण आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिवी लोकों को घुमाता है,वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है। आलसी को नहीं॥2॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
2. जब सोमलता के लिए एक पर्वत-मार्ग से दूसरे पर्वत-प्रदेश को यजमान जाता और अनेक कर्म सिर पर उठाता है, तब इन्द्र यजमान का मनोरथ जानते और इच्छित-वर्षण के लिए उत्सुक होकर मरुद्दल के साथ यज्ञ-स्थल में आने को प्रस्तुत होते हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
2. As up he clomb from ridge to ridge and looked upon the toilsome task, Indra observes this wish of his, and the Rain hastens with his troop. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
As up he clomb from ridge to ridge and looked upon the toilsome task, Indra observes this wish of his, and the Rain hastens with his troop. [2]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
2. Indra, the showerer (of blessings), knows the object (of his worshipper), who has performed many acts of worship (with the Soma plant gathered) on the ridges of the mountain, and (therefore) comes with the troop (of Maruts).
The Ridges of the Mountain- The original has only, mounting from ridge to ridge, yat sanoh sanum aruhat, which the Scholiast completes by observing that this is said of the Yajamana, who goes to the mountain to gather either the Soma plant for bruising, or fuel for the fire, or other articles required for the ceremony.

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