ऋग्वेदः 1.1.7
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ॥7॥
पदपाठ — देवनागरी
उप॑ । त्वा॒ । अ॒ग्ने॒ । दि॒वेऽदि॑वे । दोषा॑ऽवस्तः । धि॒या । व॒यम् । नमः॑ । भर॑न्तः । आ । इ॒म॒सि॒ ॥ 1.1.7
PADAPAATH — ROMAN
upa | tvā | agne | dive–dive | doṣāvastaḥ | dhiyā | vayam | namaḥ |
bharantaḥ | ā | imasi
देवता
— अग्निः ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः;
ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
“(अग्ने) हे सबके उपासना करने योग्य परमेश्वर ! हम लोग (दिवेदिवे) अनेक प्रकार के विज्ञान होने के लिये (धिया) अपनी बुद्धि और कर्मों से आपकी (भरन्तः) उपासना को धारण और (दोषावस्तः) रात्री-दिन में निरंतर (नमः) नमस्कार आदि करते हुए (उपैमसि) आपकी शरण को प्राप्त होते हैं ॥7॥”
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे सबको देखने और सबमें व्याप्त होनेवाले उपासना के योग्य परमेश्वर ! हम लोग सब कामों के करने में एक क्षण भी आपको नहीं भूलते, इसीसे हम लोगों की अधर्म करने में कभी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि जो सर्वज्ञ सबका साक्षी परमेश्वर है, वह हमारे सब कामों को देखता है, इस निश्चय से ॥7॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. हे अग्नि! हम अनुदिन, दिन-रात, अंतस्तल के साथ तुम्हें नमस्कार करते-करते तुम्हारे पास आते हैं।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7 To thee, dispeller of the night, O Agni, day by day with prayer Bringing
thee reverence, we come
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
To you, dispeller of the night, Agni, day by day with prayer Bringing you
reverence, we come [7]
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
7. We approach you, Agni, with reverential homage in our
thoughts, daily, both morning and evening.