ऋग्वेद 1.25.17
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥17॥
पदपाठ — देवनागरी
सम्। नु। वो॒चा॒व॒है॒। पुनः॑। यतः॑। मे॒। मधु॑। आऽभृ॑तम्। होता॑ऽइव। क्षद॑से। प्रि॒यम्॥ 1.25.17
PADAPAATH — ROMAN
sam | nu | vocāvahai | punaḥ | yataḥ | me | madhu | ābhṛtam | hotāiva | kṣadase
| priyam
देवता — वरुणः; छन्द — निचृद्गायत्री ; स्वर — षड्जः;
ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (यतः) जिससे हम आचार्य और शिष्य दोनों (होतेव) जैसे यज्ञ करानेवाला विद्वान् (नु)परस्पर (क्षदसे) अविद्या और रोग जन्य दुःखान्धकार विनाश के लिये (आभृतम्) विद्वानोंके उपदेश से जो धारण किया जाता है उस यजमान के (प्रियम्) प्रियसम्पादन करने केसमान (मधु) मधुर गुण विशिष्ट विज्ञान का (वोचावहै) उपदेश नित्य करें कि उससे (मे)हमारी और तुम्हारी (पुनः) बार-बार विद्या वृद्धि होवे॥17॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे यज्ञ कराने और करनेवाले प्रीति के साथ मिलकर यज्ञ को सिद्ध कर पूरण करते हैं, वैसे ही गुरु-शिष्य मिलकर सब विद्याओं का प्रकाश करें। सब मनुष्यों को इस बात की चाहना निरन्तर रखनी चाहिये कि जिससे हमारीविद्या की वृद्धि प्रतिदिन होती रहे॥17॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
17. वरण! चूंकि मेरा मधुर हव्य तैयार है। इसलिए होता की तरह तुम वही प्रिय हव्य भक्षण करो। अनन्तर हम दोनों बातें करेंगे।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
17. Once more together let us speak, because my meath is brought:
priest-like Thou eatest what is dear to thee.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Once more together let us speak, because my meath is brought: priest-like
You eatest what is dear to you. [17]
H H Wilson (On the basis of
Sayana)
17. Let us together proclaim that my offering has been prepared, and that
you, as if the offerer, accept the valued ( oblation).