ऋग्वेद 1.17.8
इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा। अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥8॥
पदपाठ — देवनागरी
इन्द्रा॑वरुणा। नु। नु। वा॒म्। सिसा॑सन्तीषु। धी॒षु। आ। अ॒स्मभ्य॑म्। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्॥ 1.17.8
PADAPAATH — ROMAN
indrāvaruṇā | nu | nu | vām | siṣāsantīṣu | dhīṣu | ā | asmabhyam | śarma |
yacchatam
देवता — इन्द्रावरुणौ ; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो (सिषासन्तीषु) उत्तम कर्म करने को चाहने और (धीषु) शुभ अशुभ वृत्तान्त धारण करानेवाली बुद्धियों में (नु) शीघ्र (नु) जिस कारण (अस्मभ्यम्) पुरुषार्थी विद्वानों के लिये (शर्म) दुःखविनाश करनेवाले उत्तम सुख का (आयच्छतम्) अच्छी प्रकार विस्तार करते हैं, इससे (वाम्) उन (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण को कार्य्यों की सिद्धि के लिये मैं निरन्तर (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥8॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (हुवे) इस पद का ग्रहण किया है। जो मनुष्य शास्त्र से उत्तमता को प्राप्त हुई बुद्धियों से शिल्प आदि उत्तम व्यवहारों में उक्त इन्द्र और वरुण को अच्छी रीति से युक्त करते हैं, वे ही इस संसार में सुखों को फैलाते हैं॥8॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
8. इन्द्र और वरुण! तुम्हारी अच्छी तरह से सेवा करने के लिए हमारी बुद्धि अभिलाषिणी है। हमें शीघ्र सुख हो।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
8. O Indra-Varuna, – through our songs that seek to win you to ourselves,
Give us at once your sheltering help.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
Indra-Varuna, – through our songs that seek to win you to ourselves, Give us at once your sheltering help. [8]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
8. Indra and Varuna, quickly bestow happiness upon us, for our minds are devoted to you both.