ऋग्वेद 1.16.8

विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति।
वृत्रहा सोमपीतये॥8॥

पदपाठ — देवनागरी
विश्व॑म्। इत्। सव॑नम्। सु॒तम्। इन्द्रः॑। मदा॑य। ग॒च्छ॒ति॒। वृ॒त्र॒ऽहा। सोम॑ऽपीतये॥ 1.16.8

PADAPAATH — ROMAN
viśvam | it | savanam | sutam | indraḥ | madāya | gacchati | vṛtra-hā | soma-pītaye

देवता        इन्द्र:;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
यह (वृत्रहा) मेघ का हनन करनेवाला (इन्द्रः) वायु (सोमपीतये) उत्तम-उत्तम पदार्थों का पिलानेवाला तथा (मदाय) आनन्द के लिये (इत्) निश्चय करके (सवनम्) जिससे सब सुखों को सिद्ध करते हैं, जिससे (सुतम्) उत्पन्न हुए (विश्वम्) जगत् को (गच्छति) प्राप्त होते हैं॥8॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
वायु आकाश में अपने गमनागमन से सब संसार को प्राप्त होकर मेघ की वृष्टि करने वा सब से वेगवाला होकर सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है। इसके बिना कोई प्राणी किसी व्यवहार को सिद्ध करने को समर्थ नहीं हो सकता॥8॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
8. वृत्रासुर का वध करनेवाले इन्द्र सोमपान और प्रसन्नता के लिए सारे सोमरस-संयुक्त यज्ञों में जाते हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
8. To every draught of pressed-out juice Indra, the Vrtra-slayer, comes, To drink the Soma for delight. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
To every draught of pressed-out juice Indra, the Vritra-slayer, comes, To drink the soma for delight. [8]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
8. Indra, the destroyer of enemies, repairs assuredly to every ceremony where the libation is poured out, to drink the Soma juice for (his) exhilaration.

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