ऋग्वेद: 1.1.1
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥1॥
पदपाठ — देवनागरी
ओ३म् अ॒ग्निम् । ई॒ळे॒ । पु॒रःऽहि॑तम् । य॒ज्ञस्य॑ ।
दे॒वम् । ऋ॒त्विज॑म् । होता॑रम् । र॒त्न॒ऽधात॑मम् ॥ १.१.१
PADAPAATH — ROMAN
agnim | īḷe | puraḥ-hitam | yajñasya | devam | ṛtvijam | hotāram |
ratna-dhātamam
देवता —; अग्निः ; छन्द —; गायत्री; स्वर — ; षड्जः;
ऋषि — ; मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि
दयानन्द सरस्वती
(यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा
और कर्म के (होतारं) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितं) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि
सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विज्ञं) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल
सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण
आदि रत्नों के धारण करने वा (देवं) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश
करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं तथा उपकार के लिये (यज्ञस्य) हम लोग विद्यादि दान और शिल्पक्रियाओं
से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के (होतारं) देनेहारे तथा (पुरोहितं) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से
पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करनेवाले (ऋत्विजं) शिल्प विद्या साधनों के हेतु (रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण
कराने तथा (देवं) युद्धादिकों में कलायुक्त शास्त्रों से
विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की (ईळे) बारंबार इच्छा करते हैं ॥ यहां अग्नि
शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि (इन्द्रं मित्रं०) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता
है कि एक सद्ब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं तथा (तदेवाग्नि) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि
नामो करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये (ब्रह्मह्य०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के
प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा०) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा
शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है। (अग्नि०) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो
यथावत् पालन करना है, सो
ही व्रत कहाता और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा
सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है।
निरूक्तकार यास्क मुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्निशब्द की
भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये परन्तु
सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहां भी कहते हैं यास्क मुनि जी ने स्यौलाष्ठीवि ऋषि
के मत से अग्नि
शब्द का अग्रणी सबसे उत्तम अर्थ किया है, अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन
होता है वह सबसे उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाह गुणवाला भौतिक
अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है। (प्रशासितारं०) (एतमे०) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी
परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनंत
विद्यावाले और चेतन स्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है। अब
भौतिक अर्थ के ग्रहण करने में प्रमाण दिखलाते हैं। (यदश्वं०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से
अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है। यह अग्नि बैल के समान सब
देश-देशान्तरों में पहुंचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है। क्यों कि
वह कलाओं के द्वारा अश्व अर्थात् शीघ्र चलानेवाला होकर शिल्पविद्या के जाननेवाले
विद्वान लोगों के विमान आदि यानों को वेग से वाहनों के समान दूर-दूर देशों में
पहुंचाता है। (तूर्णिः०) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण
है क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतुओं से हव्यवाट् और तूर्णि भी कहाता है। (अग्निर्वै यो०) इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से
अश्वनाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो०) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्प
विद्यावाले विद्वान् लोग यंत्र कलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते
हैं। तब(देववाहनः) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों
को देशान्तर में बैलों वा घोडों के समान शीघ्र पहुंचानेवाला होता है। हे मनुष्यों ! तुम लोग (ह विष्मंतं०) हे मनुष्य लोगों ! तुम वेगादि गुणवाले अश्व रूप अग्नि के
गुणों (ईड़ते) खोजो। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का
ग्रहण है ॥१॥
भावार्थ — महर्षि
दयानन्द सरस्वती
इस
मन्त्र में श्लेषालंकार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। पिता के समान कृपा कारक
परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि
में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा
करता है कि तूं ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल,इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य
भी कहता है कि सत्य बोलूंगा, पिता और आचार्य्य की सेवा करूंगा, झूठ न कहूंगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग
शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही (अग्निमीळे०) इत्यादि वेद मन्त्रों में
भी जानना चाहिये। क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया
है। इसी (अग्निमीळे०) वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से इस मन्त्र में ‘ईडे’ यह उत्तम पुरूष का प्रयोग भी है।
(अग्निमीळे०) परमार्थ और व्यवहार विद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके
परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं जो पहिले समय में आर्य लोगों ने
अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्प विद्या उत्पन्न की थी वह अग्नि
विद्या की ही उन्नति थी आप ही आप प्रकाशमान सबका प्रकाश और अनन्त ज्ञानवान् आदि
हेतुओं से अग्नि शब्द करके परमेश्वर, तथा रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्प
विद्या के मुख्य साधक आदि हेतुओं से प्रथम मन्त्र में भौतिक अर्थ का ग्रहण किया है
॥१॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
१.
यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्,
देवों को
बुलानेवाले ऋत्विक् और रत्नधारी अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
1 I Laud Agni, the chosen Priest, God, minister of sacrifice, The hotar,
lavishest of wealth.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
LAUD Agni, the chosen priest, god, minister of sacrifice, The hotar, the
most lavish of wealth. [1]
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
“1. I glorify Agni, the high priest of the sacrifice, the
divine, the ministrant, who presents the oblation (to the gods), and is the
possessor of great wealth.
Agni- A great variety of etymologies are devised to explain the meaning of the term Agni, the most of which are obviously fanciful, but the import of which expresses the notions entertained of his character and functions. On earth he is invoked (niyate) the first Agra of the gods; in heaven he is the leader (Agrani) of the hosts of the gods; he is the first of the gods (prathamo devanam); he was the first-born of the gods (sa va eso agre devatanam ajayata). In these derivations Agni is compounded irregularly out of agra, first, and ni, to lead. It is also derived from anga, body, because he offers his own substance in the lighting of the sacrificial fire. The author of a Nirukta or glossary called Sthulasthivin, derives it from the root knu, with the negative prefixed (Aknopayti) 1 , he who does to spare the fuel. Another compiler of a glossary, Sakapuni, derives the word from three roots, i, to go, anj, to anoint, and dah, to burn, collectively; the letters being arbitrarily changed to ag, and ni from the root ni, being added. See also Yaska’s Nirukta, 7.14.
यज्ञेषु प्रणीयते नयती संममानो क्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविर्न क्नोपयति न स्नेहयति
The Priest- Agni is termed the Purohita, 1 the priest who superintends family rites, or because he is one of the sacred fires in which oblations are first (puras) offered (hita).
The Divine- Deva, which in common use means a god, is ordinarily explained in the passages in which it occurs in the Veda as ‘the bright, shining, radiant,’ being derived from div, to shine; or it is also explained, one who abides in the sky or heaven (dyusthana). It is here also optionally rendered, liberal, donor; the sense of ‘giving’ being ascribed to the same radical.
The Ministrant- Rtvij, a ministering priest, or, according to some, the Rtvij who is also the Hota2- the term that follows in the text- the priest who actually presents the oblation, or who invokes or summons the deities to the ceremony, accordingly as the word is derived from hu, to sacrifice, or hve, to call. The Professor of Great Wealth- The word is ratnadhatama,3 lit. holder of jewels; but ratna is explained generally wealth, and figuratively signifies the reward of religious rites.”
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[…] हैं। और ऋग्वेद की शुरआत में ही – ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितम् …. इस तरह से पहले मन्त्र में ळ का प्रयोग […]