ऋग्वेदः 1.8.7

यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः॥7॥

पदपाठ — देवनागरी
यः। कु॒क्षिः। सो॒म॒ऽपात॑मः। स॒मु॒द्रःऽइ॑व। पिन्व॑ते। उ॒र्वीः। आपः॑। न। का॒कुदः॑॥ 1.8.7

PADAPAATH — ROMAN
yaḥ | kukṣiḥ | soma-pātamaḥ | samudraḥ-iva | pinvate | urvīḥ | āpaḥ | na | kākudaḥ

देवता        इन्द्र:;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(समुद्र इव) जैसे समुद्र को जल, (आपोनकाकुदः) शब्दों के उच्चारण आदि व्यवहारों के करानेवाले प्राण वाणी को सेवन करते हैं। वैसे, (कुक्षिः) सब पदार्थों से रस को खींचने वाला तथा, (सोमपातमः) सोम अर्थात् सन्सार के पदार्थों का रक्षक जो सूर्य्य है वह, (उर्वीः) सब पृथिवी को सेवन वा सेचन करता है॥7॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में दो उपमालंकार हैं। ईश्वर ने जैसे जल की स्थिति और वृष्टि का हेतु समुद्र तथा वाणी के व्यवहार का हेतु प्राण बनाया है, वैसे ही सूर्य्यलोक वर्षा होने, पृथिवी के खींचने, प्रकाश और रसविभाग करने का हेतु बनाया है, इसी से सब प्राणियों के अनेक व्यवहार सिद्ध होते हैं॥7॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. इन्द्र का जो उदरदेश सोमरस-पान के लिए तत्पर रहता है, वह सागर की तरह विशाल हैं। वह उदर जीभ के जल की तरह कभी नहीं सूखता।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. His belly, drinking deepest draughts of Soma, like an ocean swells, Like wide streams from the cope of heaven. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
His belly, drinking deepest draughts of soma, like an ocean swells, Like wide streams from the cope of heaven. [7]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
7. The belly of Indra, which quaffs the Soma juice abundantly, swells like the ocean, (and is ever) moist, like the ample fluids of the palate.
The Scholiast expounds the text urvirapo na kakudah as rendered above; but kakuda1. may refer to kakud, the pinnacle of a mountain, and the phrase might then be translated, like the abundant waters (or torrents) from the mountain-tops.

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