ऋग्वेदः 1.6.3

केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः॥3॥

पदपाठ — देवनागरी
के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒॥ 1.6.3

PADAPAATH — ROMAN
ketum | kṛṇvan | aketave | peśaḥ | maryāḥ | apeśase | sam | uṣat-bhiḥ | ajāyathāḥ

देवता        इन्द्र:;       छन्द        गायत्री;       स्वर        षड्जः;      
ऋषि         मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः  

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
(मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो ! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्तनेवाले हैं उनसे मिल-2 कर जान के (अजायथाः) प्रसिद्ध हूजिये तथा हे जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू भी उस परमेश्वर के समागम से (अजायथाः) इस विद्या को यथावत् प्राप्त हो॥3॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठकर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये॥3॥
यद्यपि (मर्य्याः) इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि- हे इन्द्र तू वहां प्रकाश करनेवाला है कि जहां पहिले प्रकाश नहीं था। यह मोक्षमूलर जी का अर्थ असंगत है क्योंकि (मर्य्याः) यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा (अजायथाः) यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥3॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
3. हे मनुष्यो! सूर्यात्मा इन्द्र बेहोश को होश में करके और रूप-विरहित को रूप-दान करके प्रचंड किरणों के साथ उग रहे हैं।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
3. Thou, making light where no light was, and form, O men: where form was not, Wast born together with the Dawns. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
You, making light where no light was, and form, men: where form was not, Were born together with the Dawns. [3]

Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
3. Mortals, you owe your (daily) birth (to such an Indra), who with the rays of the morning gives sense to the senseless, and to the formless form.
Indra is here again identified with the sun, whose morning rays may be said to reanimate those who have been dead in sleep through the night. There is some difficulty, in the construction, for Maryah, mortals, is plural, while ajayathah is the second person singular of the first preterite. Sayana is of opinion that the want of concord is a Vedic license, and that the plural substantive Maryah has been put for the singular Marya.

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