ऋग्वेदः 1.11.6
तवाहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य कारवः॥6॥
पदपाठ — देवनागरी
तव॑। अ॒हम्। शू॒र॒। रा॒तिऽभिः॑। प्रति॑। आ॒य॒म्। सिन्धु॑म्। आ॒ऽवद॑न्। उप॑। अ॒ति॒ष्ठ॒न्त॒। गि॒र्व॒णः॒। वि॒दुः। ते॒। तस्य॑। का॒रवः॑॥ 1.11.6
PADAPAATH — ROMAN
tava | aham | śūra | rāti-bhiḥ | prati | āyam | sindhum | āvadan | upa |
atiṣṭhanta | girvaṇaḥ | viduḥ | te | tasya | kāravaḥ
देवता — इन्द्र:; छन्द — अनुष्टुप् ; स्वर — गान्धारः ;
ऋषि — जेता माधुच्छ्न्दसः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे (शूर) धार्मिक घोर युद्ध से दुष्टों की निवृत्ति करने तथा विद्याबल पराक्रमवाले वीर पुरुष ! जो (तव) आपके निर्भयता आदि दानों से मैं (सिन्धुम्) समुद्र के समान गम्भीर वा सुख देनेवाले आपको (आवदन्) निरन्तर कहता हुआ (प्रत्यायम्) प्रतीत करके प्राप्त होऊँ। हे (गिर्वणः) मनुष्यों की स्तुतियों से सेवन करने योग्य ! जो (ते) आपके (तस्य) युद्ध राज्य वा शिल्पविद्या के सहायक (कारवः) कारीगर हैं, वे भी आपको शूरवीर (विदुः) जानते तथा (उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर उत्तम काम करते हैं, वे सब दिन सुखी रहते हैं॥6॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मन्त्र में लुप्तोपमालंकार है। ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि- जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भयता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के जीव समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥6॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
6. वीर इन्द्र! मैं चूते हुए सोमरस का गुण सर्वत्र व्यक्त करके और तुम्हारे धन-प्रदान से आकृष्ट होकर लौटा हूँ। स्तवनीय इन्द्र! यज्ञ-कर्ता तुम्हारे पास आते थे और तुम्हारी सत्पुरुषता जानते थे।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
6. I, Hero, through thy bounties am come to the flood addressing thee. Song-lover,
here the singers stand and testify to thee thereof.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
I, hero, through your bounties am come to the flood addressing you.
Song-lover, here the singers stand and testify to you thereof. [6]
Horace Hayman Wilson (On the
basis of Sayana)
6. (Attracted) by your bounties, I again come, Hero, to you, celebrating
(your liberality) while offering this libation; the performers of the rite
approach you, who are worthy of praise, for they have known your (munificence).