ऋग्वेद:1.1.2
अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरी नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥2॥
पदपाठ — देवनागरी
ओ३म् अ॒ग्निः । पूर्वे॑भिः । ऋषि॑ऽभिः । ईड्यः॑ ।
नूत॑नैः । उ॒त । सः । दे॒वान् । आ । इ॒ह । व॒क्ष॒ति॒ ॥ १.१.२
PADAPAATH — ROMAN
agniḥ | pūrvebhiḥ | ṛṣi-bhiḥ | īḍyaḥ | nūtanaiḥ | uta | saḥ | devān | ā |
iha | vakṣati
देवता -—; अग्निः ; छन्द —; पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — ; षड्जः; ऋषि — ; मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
मन्त्रार्थ — महर्षि
दयानन्द सरस्वती
“(पूर्वेभिः)
वर्त्तमान वा पहिले समय के विद्वान् (नूतनैः) वेदार्थ के पढ़नेवाले ब्रह्मचारी तथा
नवीन तर्क और कार्य्यों में ठहरनेवाले प्राण (ऋषिभिः) मन्त्रों के अर्थों को
देखनेवाले विद्वान् उन लोगों के तर्क और कारणों में रहनेवाले प्राण इन सभों को
(अग्निः) वह परमेश्वर (ईड्यः) स्तुति करने योग्य और वह भौतिक अग्नि नित्य खोजने
योग्य है। प्राचीन और नवीन ॠषियों में प्रमाण ये हैं कि (ॠषिप्रशंसा०) वे ॠषि लोग
गूढ़ और अल्प अभिप्राययुक्त मन्त्रों के अर्थों को यथावत् जानने से प्रशंसा के
योग्य होते हैं और उन्हीं ॠषियों की मंत्रों में (दृष्टि) अर्थात् उनके अर्थों के
विचार में पुरुषार्थ से यथार्थ ज्ञान और विज्ञान की प्रवृति होती है। इसी से वे
सत्कार करने योग्य भी हैं तथा (साक्षात्कृत०) जो धर्म और अधर्म की ठीक-ठीक परीक्षा
करनेवाले धर्मात्मा और यथार्थ वक्ता थे तथा जिन्होंने सब विद्या यथावत् जान ली थी।
वे ही ॠषि हुए और जिन्होंने मन्त्रों के अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाने थे और नहीं जान
सक्ते थे। उन लोगों को अपने उपदेश द्वारा वेद मन्त्रों का अर्थ सहित ज्ञान कराते
हुए चले आये इस प्रयोजन के लिए कि जिससे उत्तरोत्तर अर्थात् पीढ़ी दर पीढ़ी आगे को
भी वेदार्थ का प्रचार उन्नत्ति के साथ बना रहे तथा जिससे कोई मनुष्य अपने और उक्त
ॠषियों के लिखे हुए व्याख्यान सुनने के लिए अपने निर्बुद्धिपन से ग्लानि को
प्राप्त हो इस बात के सहाय में उनको सुगमता से वेदार्थ का ज्ञान होने के लिए इन
ॠषियों ने निघंटु और निरुक्त आदि ग्रन्थों का उपदेश किया है। जिससे कि सब मनुष्यों
को वेद और वेदांगों का यथार्थ बोध हो जावे (पुरस्तान्मनुष्या०) इस प्रमाण से ॠषि
शब्द का अर्थ तर्क ही सिद्ध होता है। (अविज्ञान०) यह न्यायशास्त्र में गोतम मुनि
जी ने तर्क का लक्षण कहा है, इससे यह सिद्ध होता है कि जो सिद्धांत के जानने
के लिये विचार किया जाता है उसी का नाम तर्क है। (प्राणा०) इन शतपथ के प्रमाणों से
ॠषि शब्द करके प्राण और देव शब्द करके ॠतुओं का ग्रहण होता है। (सः) (उत) वही
परमेश्वर (इह) इस संसार वा इस जन्म में (देवान्) अच्छी-अच्छी इन्द्रियां विद्या
आदि गुण भौतिक अग्नि और अच्छे-अच्छे भोगने योग्य पदार्थों को (आवक्षति) प्राप्त
करता है ॥ (अग्निः पूर्वे०) इस मन्त्र का अर्थ निरुक्तकार ने जैसा कुछ किया है सो
इस मन्त्र के भाष्य में लिख दिया है ॥२॥”
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़ के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सबका उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्याग्रहण के लिए अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं। और वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ॠषि कहाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सबपर कृपा करनेवाले निष्कपट पुरुषार्थी धर्म के सिद्ध होने के लिए ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिए भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कामों को सिद्ध करनेवाले होते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिए युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, इन सबसे ईश्वर और भौतिक अग्नि का अपने-२ गुणों के साथ खोज करना योग्य है। और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ॠषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत या भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सक्ता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार कार्य्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-२ भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि– प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने जो प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सबका प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहाँ अग्नि शब्द से लिया है।
(अग्निः पूर्वे०) इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि- (पुरातनैः०) प्राचीन भृगु अंगिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिए पहुँचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोपखण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अंगरेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित गन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रंथों से विरुद्ध होवे, वह सत्य कैसे हो सक्ता है ॥२॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
2. प्राचीन
ऋषियों ने जिसकी स्तुति की थी, आधुनिक ऋषि जिसकी स्तुति करते हैं, वह अग्नि देवों को इस यज्ञ में बुलावे।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
2 Worthy is Agni to be praised by living as by ancient seers. He shall
bring. hitherward the Gods.
Translation of Griffith
Re-edited by Tormod Kinnes
Worthy is Agni to be praised by living as by ancient seers. He shall bring
the gods here. [2]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
“2. May that Agni who is to be celebrated by both ancient and modem sages conduct the gods hither.
Ancient and Modern Sages– The terms purva and nutana, former and recent, applied to Rsis or sages, are worthy of remark, as intimating the existence of earlier teachers and older hymns. The old Rsis are said to be Bhrgu, Angiras and others; perhaps those who are elsewhere termed Prajapatis- Visnu Purana.”